खिलाफत एवं असहयोग आंदोलन || Khilafat and Non-cooperation Movement

खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण आंदोलन थे, जिनका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीयों को एकजुट करना था। इन आंदोलनों ने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को संगठित किया और महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।

खिलाफत आंदोलन (1919-1924)

खिलाफत आंदोलन का उद्देश्य तुर्की के सुल्तान (जो मुस्लिमों के खिलाफा के रूप में माने जाते थे) की सत्ता को बनाए रखना था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय शक्तियों ने तुर्की पर कठोर शर्तें थोपीं, जिससे भारतीय मुसलमान नाराज़ हो गए थे। उन्होंने खिलाफत आंदोलन के तहत ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालने का प्रयास किया।

आंदोलन के कारण

प्रथम विश्व युद्ध के बाद संधियों (जैसे, संधि-वर्साई) के कारण तुर्की के खिलाफा की शक्ति कमजोर कर दी गई। इसके जवाब में भारतीय मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत की, जिसे खिलाफत आंदोलन कहा गया। आंदोलन का उद्देश्य था:

खिलाफत आंदोलन की मुख्य माँगें थीं:

  1. तुर्की के खिलाफा की सत्ता बहाल की जाए।
  2. मुस्लिम पवित्र स्थलों की सुरक्षा सुनिश्चित हो।
  3. तुर्की की भूमि और शासन व्यवस्था को स्वतंत्र रखा जाए।

अली बंधु (मोहम्मद अली और शौकत अली) ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और भारतीय मुसलमानों के समर्थन को संगठित किया।

असहयोग आंदोलन (1920-1922)

असहयोग आंदोलन महात्मा गांधी द्वारा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध चलाया गया था। इसका उद्देश्य भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के सहयोग से रोकना और ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को कमजोर करना था। खिलाफत आंदोलन के कारण हिंदू और मुस्लिम समुदायों में एकता बढ़ी, और इस अवसर पर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया।

असहयोग आंदोलन की मुख्य रणनीतियाँ थीं:

  1. सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थानों, अदालतों और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार।
  2. ब्रिटिश सरकार से सभी प्रकार का सहयोग समाप्त करना।
  3. स्वदेशी वस्त्रों का प्रयोग और खादी को बढ़ावा देना।
  4. शांतिपूर्ण और अहिंसात्मक तरीके से ब्रिटिश शासन का विरोध करना।

खिलाफत और असहयोग आंदोलन का अंत

1922 में चौरी-चौरा की घटना के बाद, जब आंदोलन हिंसक हो गया और पुलिस स्टेशन में आगजनी की गई, गांधी जी ने आंदोलन को वापस ले लिया। खिलाफत आंदोलन भी धीरे-धीरे कमजोर हो गया, क्योंकि तुर्की में खिलाफत का अंत हो गया और नए राष्ट्रवादी सरकार ने वहां आधुनिक सुधार लागू किए।

महत्व और प्रभाव

इन आंदोलनों का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा। इनसे न केवल भारत में सांप्रदायिक एकता बढ़ी, बल्कि भारतीयों में आत्मनिर्भरता और ब्रिटिश सरकार से स्वतंत्रता पाने की भावना भी विकसित हुई।

खिलाफत एवं असहयोग आंदोलन के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु

  • भारत में चलाये गये खिलाफत आन्दोलन का प्रमुख कारण तुर्की में खलीफा पव को इंग्लैण्ड द्वारा समाप्त किया जाना था।
  • वर्ष 1919 में दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी की अध्यक्षता महात्मा गांधी के द्वारा किया गया था।
  • वर्ष 1920 में इलाहाबाद में आयोजित सम्मेलन के दौरान खिलाफत समिति के द्वारा गांधी जी को असहयोग आंदोलन प्रारम्भ करने का अनुरोध किया गया था।
  • खिलाफत आंन्दोलन के प्रमुख नेता शौकत अली, मुहम्मद अली थे।
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहला असहयोग आंदोलन 1920 में प्रारम्भ किया था।
  • वर्ष 1920 के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन के प्रस्ताव को सी. आर. दास ने प्रस्ताव को प्रस्तावित किया था।
  • स्वराज का नारा गांधी जी ने असहयोग आंदोलन के समय दिया था।
  • वर्ष 1921-22 के असहयोग आदोलन का मुख्य परिणाम हिन्दु-मुस्लिम एकता था।
  • असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी ने कैसर-ए-हिन्द की उपाधि त्याग दी थी।
  • महात्मा गांधी द्वारा चलाया गया प्रथम जन आंदोलन असहयोग आंदोलन था।
  • असहयोग आंदोलन के दौरान विदेशी वस्त्रों को जलाए जाने पर रवींद्रनाथ टैगोर ने महात्मा गाँधी को लिखा कि यह निष्ठुर बर्बादी है।
  • चौरी-चौरा कांड 4 फरवरी,1922 को गोरखपुर जिले में घटित हुआ था, जिसके कारण गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया।
  • चौरी-चौरा की घटना के समय महात्मा गांधी बारदोली में थे।
  • असहयोग आंदोलन वर्ष 1922 में समाप्त हुआ।
  • गाँधी के असहयोग आंदोलन से असहमति जताते हुए मोहम्मद अली जिन्ना, एनी बेसेंट एवं विपिन चन्द्रपाल ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया था।
  • असहयोग आन्दोलन के दौरान मोतीलान नेहरू सी. आर. दास श्री राजगोपालाचारी, बल्लभभाई पटेल, आसफ अली,टी प्रकाशन व राजेन्द्र प्रसाद, जैसे प्रमुख वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ दी थी।

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