आपातकालीन प्रावधान-परिभाषा, कारण, प्रभाव, प्रकार || Emergency Provisions – Definition, causes, effects, types

संविधान के भाग XVIII में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकालीन प्रावधीन उल्लिखित हैं। ये प्रावधान केंद्र के किसी भी असामान्य स्थिति से प्रभावी रूप से निपटने में सक्षम बनाते है। संविधान में इन प्रावधानों को जोड़ने का उद्देश्य देश की संप्रीभुता, एकता, अखंडता लोकतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था तथा संविधान की सुरक्षा करना है।

राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)

घोषण के आधार

राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत की जाती है। इसके प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं:

1. युद्ध (War)

यदि देश पर युद्ध की स्थिति उत्पन्न होती है, जिसमें देश की संप्रभुता और सुरक्षा पर गंभीर खतरा होता है, तो राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की जा सकती है।

2. बाहरी आक्रमण (External Aggression)

यदि किसी विदेशी शक्ति द्वारा भारत पर आक्रमण किया जाता है, या आक्रमण की संभावना होती है, तो राष्ट्रीय आपातकाल लागू किया जा सकता है। यह स्थिति तब होती है जब देश की सुरक्षा को बाहरी दुश्मनों से खतरा हो।

3. सशस्त्र विद्रोह (Armed Rebellion)

यदि देश के अंदर किसी हिस्से में सशस्त्र विद्रोह होता है, जो देश की संप्रभुता, अखंडता और सुरक्षा के लिए खतरा बनता है, तो राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की जा सकती है। पहले इस आधार को ‘आंतरिक अशांति’ (internal disturbance) कहा जाता था, लेकिन 44वें संविधान संशोधन (1978) के बाद इसे ‘सशस्त्र विद्रोह’ (armed rebellion) में बदल दिया गया।

प्रक्रिया और अनुमोदन

  • घोषणा: राष्ट्रपति, कैबिनेट की लिखित सिफारिश पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं।
  • संसद की मंजूरी: आपातकाल की घोषणा के बाद इसे संसद की दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में अनुमोदन के लिए रखा जाता है। संसद को इस घोषणा को 1 महीने के भीतर मंजूरी देनी होती है।
  • अवधि: एक बार मंजूरी मिलने पर, आपातकाल 6 महीने की अवधि के लिए लागू रहता है और इसे प्रत्येक 6 महीने बाद संसद द्वारा पुनः अनुमोदित किया जा सकता है।
  • समाप्ति: राष्ट्रपति, संसद की अनुशंसा पर या स्वयं, आपातकाल को समाप्त कर सकते हैं।

प्रभाव

राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के बाद:

  • संविधान में संशोधन: केंद्र सरकार को अधिक शक्तियाँ मिलती हैं और संघीय ढांचे में परिवर्तन हो सकता है।
  • मौलिक अधिकार: कुछ मौलिक अधिकार, विशेष रूप से अनुच्छेद 19 के तहत, निलंबित हो सकते हैं।
  • कानून और व्यवस्था: केंद्र सरकार राज्यों में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक कार्रवाई कर सकती है।

यह आपातकालीन प्रावधान भारतीय संविधान में विशेष स्थितियों से निपटने के लिए बनाए गए हैं, लेकिन इनका उपयोग बहुत सावधानी और संवेदनशीलता से किया जाना चाहिए ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और नागरिक अधिकारों का हनन न हो।

राष्ट्रीय आपातकाल के प्रभाव केंन्द्र राज्य संबंधों पर प्रभाव

राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा भारतीय संघीय ढांचे को प्रभावित करती है, जिससे केंद्र और राज्य संबंधों में महत्वपूर्ण परिवर्तन आते हैं। यह प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है:

1. विधायी शक्ति का हस्तांतरण

  • केंद्र की शक्ति में वृद्धि: राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के दौरान, केंद्र सरकार को विधायी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। इसका अर्थ है कि संसद किसी भी राज्य सूची (State List) के विषय पर कानून बना सकती है।
  • राज्य विधानसभाओं का प्रभाव: राज्य विधानसभाओं की विधायी शक्तियाँ सीमित हो जाती हैं, और उनकी सहमति के बिना भी केंद्र सरकार कानून लागू कर सकती है।

2. कार्यकारी शक्ति का विस्तार

  • केंद्र का नियंत्रण: राज्य की कार्यकारी शक्तियाँ भी केंद्र सरकार के नियंत्रण में आ जाती हैं। केंद्र सरकार राज्यों के कार्यों और नीतियों पर अधिक नियंत्रण रख सकती है।
  • राज्यपाल की भूमिका: राज्यपाल, जो केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है, का प्रभाव बढ़ जाता है। राज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार राज्य प्रशासन पर सीधे प्रभाव डाल सकती है।

3. वित्तीय संबंध

  • केंद्र की वित्तीय शक्ति: केंद्र सरकार, राज्यों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता और अनुदानों पर अधिक नियंत्रण प्राप्त कर लेती है। यह वित्तीय अनुशासन बनाए रखने और केंद्र की नीतियों को लागू करने के लिए किया जा सकता है।
  • राज्यों की वित्तीय स्वतंत्रता: राज्यों की वित्तीय स्वतंत्रता कम हो जाती है, और उन्हें केंद्र के निर्देशों का पालन करना पड़ता है।

4. मौलिक अधिकारों का निलंबन

  • नागरिक अधिकारों पर प्रभाव: राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान, मौलिक अधिकार, विशेष रूप से अनुच्छेद 19 के अधिकार, निलंबित किए जा सकते हैं। इससे नागरिक स्वतंत्रता और राज्य के निवासियों के अधिकारों पर प्रभाव पड़ता है।
  • न्यायिक समीक्षा: आपातकाल के दौरान, सरकार की कार्रवाइयों की न्यायिक समीक्षा सीमित हो जाती है, जिससे केंद्र की शक्ति में वृद्धि होती है।

5. राजनीतिक परिदृश्य

  • राजनीतिक अस्थिरता: राज्य सरकारों के फैसलों पर केंद्र का प्रभाव बढ़ जाने से राजनीतिक अस्थिरता और तनाव पैदा हो सकता है।
  • राजनीतिक दलों का दबाव: राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान, राजनीतिक दलों पर दबाव बढ़ सकता है, और विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

6. संघीय ढांचे पर प्रभाव

  • संघीय ढांचे का क्षरण: आपातकालीन प्रावधान संघीय ढांचे को कमजोर कर सकते हैं, क्योंकि केंद्र सरकार की शक्तियाँ राज्य सरकारों के मुकाबले अधिक हो जाती हैं।
  • संविधान का संतुलन: राष्ट्रीय आपातकाल के प्रावधान संघीय संतुलन को प्रभावित करते हैं, जिससे केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति बढ़ सकती है।

अनुच्देद 358 और 359 में अंतर

अनुच्छेद 358 और 359 दोनों भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधान हैं जो आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों से संबंधित हैं। हालांकि, इन दोनों अनुच्छेदों में महत्वपूर्ण अंतर हैं। आइए दोनों का विवरण और अंतर को समझते हैं:

अनुच्छेद 358

मौलिक अधिकारों का निलंबन (विशेष रूप से अनुच्छेद 19)

  • लागू स्थिति: अनुच्छेद 358 केवल युद्ध (War) या बाहरी आक्रमण (External Aggression) के आधार पर घोषित राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान लागू होता है।
  • मौलिक अधिकारों का निलंबन: इस अनुच्छेद के तहत, आपातकाल की घोषणा के समय से ही अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता के अधिकार) के तहत प्रदत्त सभी मौलिक अधिकार स्वतः निलंबित हो जाते हैं।
  • प्रभाव: जब तक आपातकाल चलता है, अनुच्छेद 19 के अधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी भी कानून या कार्य को चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसके प्रभाव से केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को अनुच्छेद 19 के प्रावधानों के उल्लंघन के लिए अदालती मुकदमों से छूट मिल जाती है।
  • अवधि: आपातकाल की समाप्ति पर, अनुच्छेद 19 के अधिकार फिर से प्रभावी हो जाते हैं और आपातकाल के दौरान किए गए कार्यों को फिर से चुनौती दी जा सकती है।

अनुच्छेद 359

अन्य मौलिक अधिकारों का निलंबन

  • लागू स्थिति: अनुच्छेद 359 राष्ट्रीय आपातकाल के किसी भी प्रकार (युद्ध, बाहरी आक्रमण, या सशस्त्र विद्रोह) के दौरान लागू हो सकता है।
  • राष्ट्रपति का आदेश: इस अनुच्छेद के तहत, राष्ट्रपति द्वारा विशेष आदेश जारी किया जाता है, जिसमें यह निर्दिष्ट किया जाता है कि कौन से मौलिक अधिकार निलंबित किए जाएंगे।
  • मौलिक अधिकारों का निलंबन: राष्ट्रपति द्वारा जारी आदेश में निर्दिष्ट मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन का निलंबन होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे अधिकार स्वतः निलंबित हो जाते हैं। केवल उनके प्रवर्तन को निलंबित किया जाता है, यानी उनके उल्लंघन के खिलाफ अदालत में रिट याचिकाएं दायर नहीं की जा सकतीं।
  • अवधि: यह प्रवर्तन निलंबन तब तक जारी रहता है जब तक आपातकाल लागू रहता है या राष्ट्रपति द्वारा आदेश वापस नहीं लिया जाता।

अनुच्छेद 358 और 359 के बीच मुख्य अंतर

  1. लागू स्थिति:
    • अनुच्छेद 358: केवल युद्ध या बाहरी आक्रमण के दौरान।
    • अनुच्छेद 359: किसी भी प्रकार के राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान (युद्ध, बाहरी आक्रमण, या सशस्त्र विद्रोह)।
  2. मौलिक अधिकार:
    • अनुच्छेद 358: केवल अनुच्छेद 19 के तहत मौलिक अधिकारों को प्रभावित करता है।
    • अनुच्छेद 359: राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट अन्य मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन को प्रभावित करता है।
  3. स्वचालितता:
    • अनुच्छेद 358: आपातकाल की घोषणा के साथ ही स्वतः लागू हो जाता है।
    • अनुच्छेद 359: राष्ट्रपति के विशेष आदेश के माध्यम से लागू होता है।
  4. प्रभाव:
    • अनुच्छेद 358: अनुच्छेद 19 के अधिकार पूरी तरह से निलंबित हो जाते हैं।
    • अनुच्छेद 359: केवल अधिकारों का प्रवर्तन निलंबित होता है, अधिकार स्वयं नहीं।

राज्य आपातकाल (राष्ट्रपति शासन) (अनुच्छेद 356)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत, राष्ट्रपति शासन (राज्य आपातकाल) का आरोपण निम्नलिखित आधारों पर किया जा सकता है:

1. संवैधानिक तंत्र की विफलता (Failure of Constitutional Machinery)

जब किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र (Constitutional Machinery) विफल हो जाता है, तो राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि राज्य सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ हो गई है। इस विफलता के कुछ संभावित कारण हो सकते हैं:

  • राजनीतिक संकट: जब राज्य में सरकार बहुमत खो देती है और नई सरकार के गठन के लिए आवश्यक समर्थन नहीं जुटा पाती।
  • विधानसभा का भंग होना: विधानसभा को भंग कर दिया जाता है या उसका सत्र नहीं बुलाया जाता।
  • विधानसभा में अव्यवस्था: जब विधानसभा में अनुशासनहीनता और अव्यवस्था के कारण संविधानिक कार्य नहीं हो पा रहे हों।
  • विधायिका का अल्पमत: राज्य सरकार का विधानसभा में बहुमत नहीं रहना।

2. राज्यपाल की रिपोर्ट (Governor’s Report)

राष्ट्रपति शासन का आरोपण राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर किया जा सकता है, जिसमें राज्यपाल द्वारा बताया जाता है कि राज्य की स्थिति संवैधानिक तंत्र की विफलता के समान है।

3. राष्ट्रपति का संतोष (President’s Satisfaction)

संविधान यह भी प्रावधान करता है कि यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए, चाहे राज्यपाल की रिपोर्ट से या अन्य स्रोतों से, कि राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है, तो वे राष्ट्रपति शासन लागू कर सकते हैं।

प्रक्रिया और अनुमोदन

  • घोषणा: राष्ट्रपति अनुच्छेद 356 के तहत राज्य में आपातकाल (राष्ट्रपति शासन) की घोषणा करते हैं।
  • संसद की मंजूरी: इस घोषणा के बाद, इसे संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में अनुमोदन के लिए रखा जाता है। संसद को इसे 2 महीने के भीतर मंजूरी देनी होती है।
  • अवधि: एक बार मंजूरी मिलने पर, राष्ट्रपति शासन 6 महीने की अवधि के लिए लागू होता है और इसे प्रत्येक 6 महीने बाद अधिकतम 3 वर्षों तक संसद द्वारा पुनः अनुमोदित किया जा सकता है। 3 वर्षों से अधिक की अवधि के लिए दो शर्तें हैं: राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) लागू हो और चुनाव आयोग द्वारा यह प्रमाणित हो कि विधानसभा चुनाव कराना संभव नहीं है।
  • समाप्ति: राष्ट्रपति, संसद की अनुशंसा पर या स्वयं, राष्ट्रपति शासन को समाप्त कर सकते हैं।

प्रभाव

राष्ट्रपति शासन के लागू होने के बाद:

  • राज्य के कार्यकारी अधिकार: राज्य के कार्यकारी अधिकार राष्ट्रपति में निहित हो जाते हैं और राज्यपाल के माध्यम से कार्यान्वित होते हैं।
  • विधानसभा का विघटन या निलंबन: राज्य विधानसभा या तो भंग कर दी जाती है या निलंबित कर दी जाती है।
  • न्यायिक समीक्षा: राष्ट्रपति शासन की घोषणा न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, जैसा कि 1994 के बाम्बे हाई कोर्ट के निर्णय और 1994 के सुप्रीम कोर्ट के S.R. Bommai मामले में स्पष्ट किया गया है।

राष्ट्रपति शासन के परिणाम

राष्ट्रपति शासन के लागू होने के बाद भारतीय संघीय ढांचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं। इसके परिणाम निम्नलिखित क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं:

1. कार्यकारी शक्ति का हस्तांतरण

  • राज्य के कार्यकारी अधिकार: राज्य की कार्यकारी शक्ति राष्ट्रपति में निहित हो जाती है। राष्ट्रपति राज्यपाल के माध्यम से राज्य का प्रशासन संचालित करते हैं।
  • मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद: मुख्यमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद पदमुक्त हो जाती है, और उनकी सभी शक्तियाँ राज्यपाल (राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में) को सौंप दी जाती हैं।

2. विधायी शक्ति का प्रभाव

  • विधानसभा का विघटन या निलंबन: राज्य विधानसभा या तो भंग कर दी जाती है या निलंबित कर दी जाती है। भंग होने की स्थिति में, विधायी कार्य संसद द्वारा या राष्ट्रपति द्वारा अधिनियमित अध्यादेशों के माध्यम से किए जाते हैं।
  • विधायी शक्तियाँ: विधानसभा के विघटन के दौरान, संसद राज्य सूची (State List) के विषयों पर भी कानून बना सकती है।

3. प्रशासनिक नियंत्रण

  • केंद्र का सीधा नियंत्रण: राज्य का प्रशासन केंद्र सरकार के सीधा नियंत्रण में आ जाता है। राज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार राज्य की सभी प्रशासनिक और कार्यकारी गतिविधियों का संचालन करती है।
  • नियंत्रण और प्रबंधन: केंद्र सरकार की नीतियाँ और निर्देश राज्य में सीधे लागू किए जाते हैं।

4. वित्तीय प्रभाव

  • वित्तीय शक्तियाँ: राज्य की वित्तीय स्वतंत्रता कम हो जाती है और राज्य के वित्तीय संसाधनों पर केंद्र का अधिक नियंत्रण हो जाता है।
  • वित्तीय प्रबंधन: राज्य के बजट और वित्तीय प्रबंधन के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार हो जाती है।

5. राजनीतिक प्रभाव

  • राजनीतिक अस्थिरता: राज्य में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है, क्योंकि निर्वाचित सरकार को हटा दिया जाता है और केंद्रीय शासन लागू होता है।
  • प्रभावित राजनीतिक दल: स्थानीय राजनीतिक दलों और नेताओं की शक्ति कम हो जाती है, जिससे राज्य की राजनीति पर केंद्र का प्रभाव बढ़ता है।

6. न्यायिक समीक्षा

  • संवैधानिकता की समीक्षा: राष्ट्रपति शासन की घोषणा न्यायिक समीक्षा के लिए न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है। S.R. Bommai बनाम भारत संघ मामले (1994) में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति शासन की संवैधानिकता की समीक्षा की जा सकती है।
  • न्यायिक हस्तक्षेप: न्यायालय यह सुनिश्चित कर सकता है कि राष्ट्रपति शासन संविधान के अनुरूप और वैध कारणों से लगाया गया हो।

7. प्रशासनिक सुधार

  • प्रशासनिक सुधार: केंद्र सरकार के हस्तक्षेप से राज्य में प्रशासनिक सुधार की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन, और असंवैधानिक कार्यों को नियंत्रित करने के लिए केंद्र प्रभावी कदम उठा सकता है।

8. सामाजिक प्रभाव

  • सामाजिक स्थिरता: यदि राज्य में गंभीर कानून और व्यवस्था की समस्या है, तो राष्ट्रपति शासन लागू होने से स्थिति को स्थिर किया जा सकता है।
  • विकास और जनसेवा: राज्य के विकास और जनसेवा कार्यक्रमों का केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के तहत पुनर्गठन किया जा सकता है।

राष्ट्रीय आपातकाल एवं राष्ट्रपति शासन में तुलना

राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) और राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) दोनों भारतीय संविधान के आपातकालीन प्रावधान हैं, लेकिन इन दोनों में महत्वपूर्ण अंतर हैं। आइए इनकी तुलना करें:

1. आधार

  • राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352):
    • लागू होने के कारण: युद्ध, बाहरी आक्रमण, या सशस्त्र विद्रोह।
    • घोषणा: राष्ट्रपति द्वारा, कैबिनेट की लिखित सिफारिश पर।
    • क्षेत्र: पूरे देश या किसी विशेष क्षेत्र में लागू हो सकता है।
  • राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356):
    • लागू होने के कारण: राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता।
    • घोषणा: राष्ट्रपति द्वारा, राज्यपाल की रिपोर्ट या राष्ट्रपति के स्वयं के संतोष के आधार पर।
    • क्षेत्र: केवल प्रभावित राज्य में लागू होता है।

2. उद्देश्य

  • राष्ट्रीय आपातकाल:
    • देश की सुरक्षा और अखंडता की रक्षा करना।
    • केंद्र सरकार को व्यापक शक्तियाँ प्रदान करना।
  • राष्ट्रपति शासन:
    • राज्य में संवैधानिक तंत्र को पुनः स्थापित करना।
    • राज्य की प्रशासनिक समस्याओं को हल करना।

3. प्रभाव

  • राष्ट्रीय आपातकाल:
    • केंद्र-राज्य संबंध: केंद्र की शक्ति में वृद्धि, राज्य की स्वायत्तता में कमी।
    • मौलिक अधिकार: अनुच्छेद 19 के अधिकार स्वतः निलंबित (अनुच्छेद 358); अन्य मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन का निलंबन (अनुच्छेद 359)।
    • विधायी शक्ति: संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार।
  • राष्ट्रपति शासन:
    • केंद्र-राज्य संबंध: राज्य की कार्यकारी शक्ति राष्ट्रपति में निहित, राज्यपाल के माध्यम से प्रशासन।
    • मौलिक अधिकार: मौलिक अधिकार सामान्यतः प्रभावित नहीं होते।
    • विधायी शक्ति: राज्य विधानसभा के भंग होने पर, संसद राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।

4. अवधि और समीक्षा

  • राष्ट्रीय आपातकाल:
    • प्रारंभिक अवधि: 1 महीने के भीतर संसद की मंजूरी आवश्यक।
    • पुनः अनुमोदन: प्रत्येक 6 महीने बाद संसद द्वारा।
    • समाप्ति: संसद की अनुशंसा पर या राष्ट्रपति द्वारा।
  • राष्ट्रपति शासन:
    • प्रारंभिक अवधि: 2 महीने के भीतर संसद की मंजूरी आवश्यक।
    • पुनः अनुमोदन: प्रत्येक 6 महीने बाद संसद द्वारा, अधिकतम 3 वर्षों तक (विशेष परिस्थितियों में बढ़ाई जा सकती है)।
    • समाप्ति: संसद की अनुशंसा पर या राष्ट्रपति द्वारा।

5. न्यायिक समीक्षा

  • राष्ट्रीय आपातकाल:
    • न्यायालय द्वारा समीक्षा सीमित, विशेषकर मौलिक अधिकारों के निलंबन के मामले में।
    • 44वें संविधान संशोधन (1978) के बाद न्यायालयीय समीक्षा की संभावना बढ़ी है।
  • राष्ट्रपति शासन:
    • न्यायालय द्वारा समीक्षा संभव।
    • S.R. Bommai बनाम भारत संघ मामले (1994) के बाद न्यायालयीय समीक्षा की शक्ति मजबूत हुई।

6. राजनीतिक प्रभाव

  • राष्ट्रीय आपातकाल:
    • देशभर में राजनीतिक अस्थिरता का खतरा।
    • केंद्र सरकार को व्यापक नियंत्रण और अधिकार।
  • राष्ट्रपति शासन:
    • प्रभावित राज्य में राजनीतिक अस्थिरता।
    • राज्य सरकार की सत्ता का केंद्र में स्थानांतरण।

सारांश

  • राष्ट्रीय आपातकाल का उद्देश्य देश की सुरक्षा सुनिश्चित करना है और इसका प्रभाव पूरे देश या एक बड़े क्षेत्र पर पड़ता है, जिसमें मौलिक अधिकारों का निलंबन शामिल हो सकता है।
  • राष्ट्रपति शासन का उद्देश्य एक राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता को दूर करना है और इसका प्रभाव विशेष राज्य पर पड़ता है, जिसमें राज्य की कार्यकारी और विधायी शक्तियों का केंद्र में स्थानांतरण शामिल है।

न्यायिक समीक्षा की संभावनाएं

भारतीय संविधान में राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) और राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) की घोषणाओं के न्यायिक समीक्षा की संभावनाएँ स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं। न्यायिक समीक्षा के माध्यम से न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि आपातकालीन घोषणाएँ संविधान के अनुरूप और वैध कारणों पर आधारित हों। दोनों स्थितियों में न्यायिक समीक्षा की संभावनाओं का विवरण निम्नलिखित है:

राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)

न्यायिक समीक्षा की संभावनाएँ

  1. घोषणा के आधार की समीक्षा:
    • 1975 में घोषित आपातकाल के बाद, 44वें संविधान संशोधन (1978) के माध्यम से न्यायिक समीक्षा की संभावना को बढ़ाया गया। इस संशोधन के बाद, राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के आधार की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
    • न्यायालय यह जाँच सकता है कि आपातकाल की घोषणा युद्ध, बाहरी आक्रमण, या सशस्त्र विद्रोह के वास्तविक और पर्याप्त आधार पर की गई है या नहीं।
  2. मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की समीक्षा:
    • आपातकाल के दौरान निलंबित किए गए मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन को न्यायालय द्वारा चुनौती दी जा सकती है।
    • अनुच्छेद 358 और 359 के तहत मौलिक अधिकारों के निलंबन को भी न्यायालय की समीक्षा के तहत लाया जा सकता है।

महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की मूल संरचना सिद्धांत (Basic Structure Doctrine) को प्रतिपादित किया, जो न्यायिक समीक्षा का एक महत्वपूर्ण आधार है।
  • मीनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): इस मामले में न्यायालय ने संविधान की मूल संरचना को बरकरार रखते हुए आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों की समीक्षा की संभावना को स्पष्ट किया।

राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356)

न्यायिक समीक्षा की संभावनाएँ

  1. राज्यपाल की रिपोर्ट की समीक्षा:
    • न्यायालय यह जाँच सकता है कि राज्यपाल की रिपोर्ट वास्तविकता पर आधारित है या नहीं और क्या राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता के पर्याप्त कारण हैं।
    • रिपोर्ट में दिए गए तथ्यों और सिफारिशों की समीक्षा की जा सकती है।
  2. राष्ट्रपति के संतोष की समीक्षा:
    • न्यायालय राष्ट्रपति के संतोष की न्यायिक समीक्षा कर सकता है। यह संतोष वस्तुनिष्ठ तथ्यों और वास्तविक परिस्थितियों पर आधारित होना चाहिए।
    • S.R. Bommai बनाम भारत संघ (1994) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति के संतोष की समीक्षा की जा सकती है और यह संतोष संविधान के अनुसार होना चाहिए।

महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

  • S.R. Bommai बनाम भारत संघ (1994): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन की न्यायिक समीक्षा की सीमा और मानदंड स्थापित किए। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति का संतोष न्यायिक समीक्षा के अधीन है, और राष्ट्रपति शासन की घोषणा को मनमानेपन या असंवैधानिकता के आधार पर चुनौती दी जा सकती है।
  • राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य (2007): इस मामले में भी न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन के फैसले की न्यायिक समीक्षा की और संवैधानिक तंत्र की विफलता के आधारों की जाँच की।

सारांश

राष्ट्रीय आपातकाल

  • न्यायिक समीक्षा के पहलू: आधार की समीक्षा, मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की समीक्षा।
  • महत्वपूर्ण निर्णय: केशवानंद भारती मामला, मीनर्वा मिल्स मामला।

राष्ट्रपति शासन

  • न्यायिक समीक्षा के पहलू: राज्यपाल की रिपोर्ट, राष्ट्रपति का संतोष।
  • महत्वपूर्ण निर्णय: S.R. Bommai मामला, राजेंद्र सिंह राणा मामला।

वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)

उदघोषणा का आधार

वित्तीय आपातकाल तब घोषित किया जाता है जब भारत की वित्तीय स्थिरता को खतरा हो।

विशेषताएँ:

  • केंद्र सरकार राज्य सरकारों को वित्तीय दिशानिर्देश जारी कर सकती है।
  • सभी सरकारी कर्मचारियों की वेतन और भत्तों में कटौती की जा सकती है।
  • संसद को वित्तीय आपातकाल के दौरान राज्यों के वित्तीय मामलों पर पूर्ण नियंत्रण मिलता है।

आपातकाल की घोषणा की प्रक्रिया

  • राष्ट्रपति को आपातकाल घोषित करने के लिए कैबिनेट की सिफारिश आवश्यक है।
  • आपातकाल की घोषणा के बाद, इसे संसद की दोनों सदनों में पारित किया जाना चाहिए।
  • राष्ट्रीय और वित्तीय आपातकाल के लिए यह अनुमोदन 1 महीने के भीतर, जबकि राज्य आपातकाल के लिए 2 महीने के भीतर आवश्यक होता है।
  • राष्ट्रीय आपातकाल को हर 6 महीने बाद संसद की मंजूरी से बढ़ाया जा सकता है।
  • वित्तीय आपातकाल तब तक जारी रह सकता है जब तक कि इसे संसद द्वारा समाप्त नहीं किया जाता।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत द्वितीय राष्ट्रीय आपातकाल (1975-1977) की घोषणा का आधार कुछ प्रमुख घटनाओं और परिस्थितियों पर आधारित था। इसे व्यापक रूप से “इंदिरा गांधी का आपातकाल” कहा जाता है। आइए इस आपातकाल की घोषणा के आधारों और कारणों का विवरण देखें:

ऐतिहासिक संदर्भ

  • तारीख: 25 जून 1975
  • प्रधानमंत्री: इंदिरा गांधी
  • राष्ट्रपति: फखरुद्दीन अली अहमद

आपातकाल की घोषणा का औपचारिक आधार

  • आधार: आंतरिक अशांति (Internal Disturbance)।
    • संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत, राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वे युद्ध, बाहरी आक्रमण, या आंतरिक अशांति के आधार पर आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं।
    • 25 जून 1975 को, राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की। इस आपातकाल का औपचारिक आधार “आंतरिक अशांति” था।

आपातकालीन प्रावधानों की आलोचना

भारतीय संविधान के आपातकालीन प्रावधानों की आलोचना विभिन्न दृष्टिकोणों से की गई है। आलोचकों का तर्क है कि ये प्रावधान, विशेष रूप से राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) और राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356), लोकतंत्र और संघीय ढांचे के लिए खतरा हो सकते हैं। यहां आपातकालीन प्रावधानों की प्रमुख आलोचनाओं का विवरण दिया गया है:

1. शक्ति का केंद्रीकरण

  • अत्यधिक शक्तियाँ: आपातकाल के दौरान केंद्र सरकार को अत्यधिक शक्तियाँ मिल जाती हैं, जिससे संघीय ढांचे को नुकसान होता है। यह राज्य सरकारों की स्वायत्तता को कमजोर कर सकता है।
  • लोकतांत्रिक संतुलन का विघटन: केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है।

2. मौलिक अधिकारों का निलंबन

  • मौलिक अधिकारों का हनन: आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों का निलंबन (विशेष रूप से अनुच्छेद 19 के तहत अधिकार) नागरिकों की स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन है।
  • न्यायिक संरक्षण की कमी: आपातकाल के दौरान नागरिकों के पास न्यायिक संरक्षण की कमी होती है, जिससे उनके अधिकारों की रक्षा नहीं हो पाती।

3. दुरुपयोग की संभावना

  • राजनीतिक दुरुपयोग: आपातकालीन प्रावधानों का राजनीतिक दुरुपयोग संभव है, जैसा कि 1975-1977 के आपातकाल के दौरान देखा गया था। यह सत्ता में बने रहने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल हो सकता है।
  • विपक्ष का दमन: आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और दमन आम हो जाता है, जिससे राजनीतिक असंतोष और लोकतांत्रिक विरोध दबा दिया जाता है।

4. प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता

  • सेंसरशिप: आपातकाल के दौरान प्रेस और मीडिया पर सेंसरशिप लागू की जाती है, जिससे स्वतंत्र और निष्पक्ष रिपोर्टिंग बाधित होती है।
  • सूचना का अभाव: नागरिकों को सटीक और महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने में कठिनाई होती है, जिससे जनता की जागरूकता और सहभागिता प्रभावित होती है।

5. न्यायिक स्वतंत्रता

  • न्यायपालिका पर दबाव: आपातकाल के दौरान न्यायपालिका पर दबाव डाला जा सकता है, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
  • रिट याचिकाओं का निलंबन: आपातकाल के दौरान रिट याचिकाओं का निलंबन न्यायिक प्रक्रिया की स्वतंत्रता को कमजोर करता है।

6. प्रशासनिक अराजकता

  • प्रशासनिक नियंत्रण: आपातकाल के दौरान प्रशासनिक नियंत्रण केंद्रित हो जाता है, जिससे स्थानीय प्रशासन की कार्यक्षमता प्रभावित हो सकती है।
  • सामान्य प्रशासन का बाधित होना: अत्यधिक केंद्रीकृत शक्ति के कारण सामान्य प्रशासनिक कार्य बाधित हो सकते हैं, जिससे नागरिक सेवाओं में रुकावट आ सकती है।

7. दीर्घकालिक प्रभाव

  • राजनीतिक अस्थिरता: आपातकाल के बाद राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है, क्योंकि नागरिकों में असंतोष और अविश्वास उत्पन्न हो सकता है।
  • संवैधानिक मूल्यों का ह्रास: आपातकाल के दौरान संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक सिद्धांतों का ह्रास हो सकता है, जिससे लंबे समय तक लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रभाव पड़ सकता है।

8. शिक्षा और जागरूकता की कमी

  • सामान्य नागरिकों में जागरूकता की कमी: आपातकालीन प्रावधानों के प्रभाव और उनके दुरुपयोग के संभावित खतरों के बारे में सामान्य नागरिकों में पर्याप्त जागरूकता और शिक्षा की कमी हो सकती है।
  • लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का कमजोर होना: आपातकालीन प्रावधानों के कारण लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं और नागरिक सहभागिता कमजोर हो सकती हैं।

निष्कर्ष

भारतीय संविधान के आपातकालीन प्रावधानों की आलोचना मुख्यतः इन प्रावधानों के दुरुपयोग की संभावना, लोकतांत्रिक संस्थाओं और अधिकारों पर उनके नकारात्मक प्रभाव, और संघीय ढांचे के कमजोर होने के आधार पर की जाती है। हालांकि, इन प्रावधानों का उद्देश्य असाधारण परिस्थितियों में राष्ट्रीय सुरक्षा और संविधान की रक्षा करना है, लेकिन उनके दुरुपयोग के ऐतिहासिक उदाहरणों ने इनकी समीक्षा और संशोधन की आवश्यकता को रेखांकित किया है।

राष्ट्रपति शासन लगाना 1951-2023 तक कितनी बार लगाया गया

1951 से 2023 तक, भारत में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) कुल 132 बार लागू किया गया है। राष्ट्रपति शासन का उपयोग विभिन्न राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता, राजनीतिक अस्थिरता और कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति के कारण किया गया।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और आंकड़े:

  1. पहली बार: 1951 में पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था।
  2. आपातकालीन अवधि: 1975-1977 के आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति शासन का बड़े पैमाने पर उपयोग हुआ।
  3. बार-बार उपयोग: उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, केरल जैसे राज्यों में राष्ट्रपति शासन बार-बार लागू किया गया है।

सारांश:

1951 से 2024 तक राष्ट्रपति शासन की घटनाओं की विस्तृत सूची और संख्या निम्नलिखित है:

दशकघटनाओं की संख्या
1951-19606
1961-197011
1971-198021
1981-199035
1991-200025
2001-201015
2011-202419

विश्लेषण:

  1. 1950s: राष्ट्रपति शासन का प्रारंभिक प्रयोग, पंजाब में पहली बार लागू हुआ।
  2. 1960s: कुछ राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता के कारण राष्ट्रपति शासन का उपयोग बढ़ा।
  3. 1970s: आपातकालीन अवधि (1975-1977) में व्यापक रूप से राष्ट्रपति शासन लागू किया गया।
  4. 1980s: कई राज्यों में राजनीतिक और प्रशासनिक अस्थिरता के कारण राष्ट्रपति शासन का बार-बार उपयोग हुआ।
  5. 1990s: इस दशक में भी राजनीतिक अस्थिरता जारी रही और राष्ट्रपति शासन की घटनाएँ बढ़ी।
  6. 2000s: राष्ट्रपति शासन की घटनाओं में कमी आई, लेकिन फिर भी कुछ राज्यों में लागू हुआ।
  7. 2010s और 2020s: हाल के दशकों में भी राजनीतिक अस्थिरता और संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण राष्ट्रपति शासन का उपयोग हुआ।

निष्कर्ष:

1951 से 2024 तक भारत में कुल 132 बार राष्ट्रपति शासन लागू किया गया है। यह दर्शाता है कि भारतीय संघीय ढांचे में राष्ट्रपति शासन का महत्वपूर्ण भूमिका रही है, विशेष रूप से उन परिस्थितियों में जहां राज्य सरकारें संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार कार्य करने में विफल रहीं। राष्ट्रपति शासन के इस व्यापक उपयोग ने संवैधानिक और न्यायिक सुधारों की आवश्यकता को भी उजागर किया है ताकि संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को संरक्षित किया जा सके।

आपात प्रावधान संबंधी अनुच्छेद: एक नजर में

अनुच्छेद विषय-वस्तु
352आपातकाल की धोषणा।
353आपातकाल लागू होने के प्रभाव।
354आपातकाल की घोषण जारी रहते राजस्व के वितरण से संबंधित प्रावधानों का लागू होना।
355राज्यों की बाहरी आक्रमण तथा आंतरिक अव्यवस्था से सुरक्षा संबंधी संध के कर्तव्य।
356राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता की स्थिति संबंधी प्रावधान।
357अनुच्छेद 356 के अंतर्गत जारी घोषण के बाद विधायी शक्तियों का प्रयोग।
358आपातकाल में अनुच्छेद 19 के प्रावधानों का स्थगन।
359आपातकाल में भाग पप में प्रदत अधिकारों को लागू करना, स्थगित रखना।
359-ए इस भाग में पंजाब राज्य पर भी लागू करना (निरस्त)।
360 वितीय आपातकाल संबंधी प्रावधान।



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