पंचायती राज || Panchayati Raj

भारत में ’पंचायती राज’ शब्द का अभिप्राय ग्रामीय स्थानीय स्वशान पद्धति से हैं। यह भारत के सभी राज्यों में, जमीनी स्तर पर लोकतंत्र के निर्माण हेतु राज्य विधानसभाओं द्वारा स्थापित किया गया है। इसे ग्रामीण विकास का दायित्व सौंपा गया हैं 1992 के 73वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इसे संविधान में शामिल किया गया।

पंचायती राज का विकास


बलवंत राय मेहता समिति
भारतीय पंचायती राज व्यवस्था के विकास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इस समिति का गठन 1957 में किया गया था और इसका उद्देश्य सामुदायिक विकास कार्यक्रमों की समीक्षा करना और उन्हें प्रभावी बनाने के लिए सिफारिशें देना था।

समिति का गठन और उद्देश्य

1950 के दशक में, सामुदायिक विकास कार्यक्रम और राष्ट्रीय विस्तार सेवा जैसे ग्रामीण विकास कार्यक्रम चलाए जा रहे थे, लेकिन इनका प्रभाव सीमित था। इस पृष्ठभूमि में, भारत सरकार ने 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति गठित की।

सिफारिशें

समिति ने अपनी रिपोर्ट 1958 में प्रस्तुत की और निम्नलिखित महत्वपूर्ण सिफारिशें दीं:

  1. त्रि-स्तरीय पंचायत प्रणाली: समिति ने ग्राम स्तर (ग्राम पंचायत), ब्लॉक स्तर (पंचायत समिति), और जिला स्तर (जिला परिषद) पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की।
    • ग्राम पंचायत: ग्राम स्तर पर स्थानीय स्वशासन की सबसे निचली इकाई।
    • पंचायत समिति: ब्लॉक स्तर पर, जो ग्राम पंचायतों का समन्वय करेगी।
    • जिला परिषद: जिला स्तर पर, जो समग्र विकास कार्यों का निरीक्षण और समन्वय करेगी।
  2. लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण: समिति ने ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देने पर जोर दिया, जिससे लोगों की भागीदारी और जिम्मेदारी बढ़ सके।
  3. वित्तीय अधिकार: पंचायतों को स्वतंत्र वित्तीय अधिकार देने की सिफारिश की गई, जिससे वे अपने क्षेत्र के विकास के लिए वित्तीय संसाधनों का प्रबंधन कर सकें।
  4. प्रशासनिक सुधार: समिति ने ग्रामीण विकास के लिए पंचायतों को प्रशासनिक इकाई के रूप में मान्यता देने की सिफारिश की।
  5. समन्वय और निगरानी: पंचायतों के कामकाज का समन्वय और निगरानी सुनिश्चित करने के लिए एक प्रभावी तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया।

प्रभाव

बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों का बड़ा प्रभाव पड़ा और ये सिफारिशें भारत में पंचायती राज व्यवस्था की नींव बन गईं। 1959 में, राजस्थान और आंध्र प्रदेश ने सबसे पहले इन सिफारिशों को अपनाते हुए पंचायती राज संस्थाओं की स्थापना की। इसके बाद अन्य राज्यों ने भी इसे अपनाया।

निष्कर्ष

बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों ने भारत में ग्रामीण स्वशासन और विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। इसके माध्यम से न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन की नींव रखी गई, बल्कि सामुदायिक भागीदारी और जिम्मेदारी को भी बढ़ावा मिला। यह समिति भारतीय पंचायती राज व्यवस्था के विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई है।

अशोक मेहता समिति


अशोक मेहता समिति का गठन 1977 में हुआ था और इसका उद्देश्य पंचायत राज संस्थाओं को मजबूत बनाने के लिए सुझाव देना था। यह समिति भारतीय राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में ग्रामीण स्थानीय सरकारों की स्थिति और कार्यप्रणाली में सुधार के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है।

समिति की प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित थीं:

  1. त्रिस्तरीय प्रणाली की सिफारिश: समिति ने पंचायत राज संस्थाओं के लिए त्रिस्तरीय प्रणाली की सिफारिश की, जिसमें ज़िला पंचायत, मंडल पंचायत (ब्लॉक पंचायत), और ग्राम पंचायत शामिल थे।
  2. सशक्त ज़िला पंचायत: समिति ने ज़िला पंचायत को प्रमुख संस्थान के रूप में विकसित करने की सिफारिश की, जिसके पास प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियाँ हों।
  3. प्रत्यक्ष चुनाव: ज़िला और मंडल पंचायत के सदस्यों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव की सिफारिश की गई थी।
  4. राजनीतिक दलों की भूमिका: समिति ने सुझाव दिया कि पंचायत चुनावों में राजनीतिक दलों की भागीदारी होनी चाहिए, जिससे ग्रामीण राजनीति में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व बढ़ सके।
  5. न्यायिक शक्तियाँ: समिति ने सुझाव दिया कि पंचायतों को कुछ न्यायिक शक्तियाँ भी दी जानी चाहिए, जिससे वे छोटे-मोटे विवादों को सुलझा सकें।
  6. नियंत्रण और लेखा परीक्षा: समिति ने यह भी सिफारिश की कि पंचायतों के कार्यों की नियमित रूप से लेखा परीक्षा होनी चाहिए और उन पर पर्याप्त नियंत्रण होना चाहिए।

अशोक मेहता समिति की सिफारिशों का उद्देश्य पंचायत राज संस्थाओं को अधिक स्वायत्त और प्रभावी बनाना था, जिससे ग्रामीण विकास में उनकी भागीदारी बढ़ सके। हालांकि, सभी सिफारिशों को पूरी तरह से लागू नहीं किया गया, लेकिन इस समिति ने ग्रामीण शासन प्रणाली में सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान किया।

जी. बी. के. राव समिति


जी बी के राव समिति का गठन 1985 में हुआ था। इस समिति का प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार और पुनर्गठन के लिए सिफारिशें देना था। समिति का नाम इसके अध्यक्ष डॉ. जी बी के राव के नाम पर रखा गया था।

जी बी के राव समिति की मुख्य सिफारिशें निम्नलिखित थीं:

  1. प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल: समिति ने ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को मजबूत करने पर जोर दिया। इसका उद्देश्य यह था कि स्वास्थ्य सेवाएं प्रत्येक व्यक्ति तक सुलभ और सस्ती होनी चाहिए।
  2. स्वास्थ्य उपकेंद्र: ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक संख्या में स्वास्थ्य उपकेंद्रों की स्थापना की सिफारिश की गई, ताकि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं लोगों के नजदीक उपलब्ध हो सकें।
  3. स्वास्थ्य कर्मियों की ट्रेनिंग: समिति ने स्वास्थ्य कर्मियों की प्रशिक्षण प्रणाली में सुधार करने और उन्हें बेहतर तरीके से प्रशिक्षित करने पर बल दिया। इसका उद्देश्य था कि स्वास्थ्य कर्मी ग्रामीण समस्याओं को बेहतर ढंग से समझ सकें और उनका समाधान कर सकें।
  4. जनस्वास्थ्य की भागीदारी: समिति ने सुझाव दिया कि स्वास्थ्य योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन में जनसहभागिता होनी चाहिए, जिससे स्थानीय जरूरतों के अनुसार सेवाएं उपलब्ध कराई जा सकें।
  5. स्वास्थ्य और पोषण: जी बी के राव समिति ने पोषण कार्यक्रमों के साथ स्वास्थ्य सेवाओं के समन्वय की सिफारिश की, ताकि कुपोषण और उससे संबंधित बीमारियों का प्रभावी तरीके से मुकाबला किया जा सके।
  6. निगरानी और मूल्यांकन: स्वास्थ्य सेवाओं के निगरानी और मूल्यांकन के लिए एक मजबूत प्रणाली विकसित करने की सिफारिश की गई, ताकि सेवाओं की गुणवत्ता और प्रभावशीलता को सुनिश्चित किया जा सके।

जी बी के राव समिति की सिफारिशों का उद्देश्य ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं को व्यापक और प्रभावी बनाना था, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का समाधान किया जा सके और जनसंख्या की स्वास्थ्य स्थिति में सुधार हो। इन सिफारिशों का भारतीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा और कई सुधारों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

एल. एम. सिंघवी समिति


एल एम सिंघवी समिति का गठन 1986 में किया गया था और इसका उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं को अधिक स्वायत्त और प्रभावी बनाने के लिए सुझाव देना था। यह समिति भारत में पंचायती राज व्यवस्था को सुधारने और सशक्त बनाने के प्रयासों का हिस्सा थी। समिति का नाम इसके अध्यक्ष डॉ. एल. एम. सिंघवी के नाम पर रखा गया था।

एल एम सिंघवी समिति की प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित थीं:

  1. संविधान में स्थान: समिति ने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश की, ताकि इन संस्थाओं की स्थिति मजबूत हो सके और उनकी निरंतरता सुनिश्चित हो सके।
  2. नियमित चुनाव: पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव नियमित रूप से और समय पर कराने की सिफारिश की गई, ताकि इन संस्थाओं की लोकतांत्रिक प्रक्रिया बनी रहे।
  3. राजनीतिक और प्रशासनिक विकेंद्रीकरण: समिति ने स्थानीय स्तर पर राजनीतिक और प्रशासनिक विकेंद्रीकरण पर जोर दिया, ताकि निर्णय लेने की शक्ति स्थानीय समुदायों के पास हो।
  4. राजस्व और वित्तीय स्वायत्तता: पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय रूप से स्वायत्त बनाने के लिए इन्हें स्वतंत्र राजस्व स्रोत प्रदान करने की सिफारिश की गई। इसके अलावा, वित्तीय संसाधनों के विकेंद्रीकरण पर भी जोर दिया गया।
  5. जनभागीदारी: समिति ने पंचायतों में जनभागीदारी को बढ़ावा देने की सिफारिश की, जिससे समुदाय के लोग विकास कार्यों में सक्रिय रूप से शामिल हो सकें।
  6. ग्राम सभाएं: ग्राम सभाओं को सक्रिय और प्रभावी बनाने की सिफारिश की गई, ताकि ग्रामीण स्तर पर स्वशासन की भावना मजबूत हो सके।
  7. महिला और कमजोर वर्गों की भागीदारी: पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं और कमजोर वर्गों की पर्याप्त भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण की सिफारिश की गई।

एल एम सिंघवी समिति की सिफारिशों का महत्वपूर्ण प्रभाव हुआ और इन्हीं सिफारिशों के आधार पर 1992 में 73वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया, जिसने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया और उनके संचालन और चुनाव के लिए एक स्पष्ट ढांचा स्थापित किया। इस संशोधन के परिणामस्वरूप, पंचायती राज व्यवस्था को अधिक प्रभावी और सशक्त बनाने में मदद मिली।

थूंगन समिति


थूंगन समिति का गठन 1989 में किया गया था। यह समिति भारतीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित की गई थी और इसका नेतृत्व पी. के. थूंगन ने किया था। इसका प्रमुख उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं के ढांचे और कार्यप्रणाली में सुधार लाने के लिए सिफारिशें देना था।

थूंगन समिति की मुख्य सिफारिशें निम्नलिखित थीं:

  1. नए पंचायत ढांचे की सिफारिश: समिति ने त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, और जिला परिषद) को और अधिक सशक्त और प्रभावी बनाने की सिफारिश की।
  2. प्रत्यक्ष चुनाव: समिति ने पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों के प्रत्यक्ष चुनाव की सिफारिश की, जिससे स्थानीय स्वशासन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूत हो।
  3. आरक्षण नीति: समिति ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण की सिफारिश की, जिससे इन वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित हो सके।
  4. वित्तीय सुदृढ़ीकरण: पंचायतों को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिए समिति ने स्थानीय करों, शुल्कों और अन्य वित्तीय संसाधनों का विकेंद्रीकरण करने की सिफारिश की।
  5. ग्राम सभा की भूमिका: समिति ने ग्राम सभा को अधिक सशक्त बनाने और उनकी बैठकों को नियमित रूप से आयोजित करने की सिफारिश की, ताकि वे ग्राम स्तर पर निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।
  6. राज्य वित्त आयोग: समिति ने प्रत्येक राज्य में एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना की सिफारिश की, जो पंचायतों के वित्तीय संसाधनों का निर्धारण कर सके और उनके वित्तीय प्रबंधन में सुधार कर सके।
  7. स्वायत्तता और उत्तरदायित्व: पंचायतों को अधिक स्वायत्तता और उनके कार्यों के लिए उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के उपाय सुझाए गए।

गाडगिल समिति


गाडगिल समिति, जिसे पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल (Western Ghats Ecology Expert Panel – WGEEP) के रूप में भी जाना जाता है, भारत सरकार द्वारा 2010 में स्थापित एक समिति थी। इसका उद्देश्य पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी और पर्यावरणीय स्थिरता के संरक्षण के लिए सिफारिशें करना था। इस समिति की अध्यक्षता प्रसिद्ध पारिस्थितिकी विज्ञानी माधव गाडगिल ने की थी।

समिति का गठन मुख्य रूप से इसलिए किया गया था क्योंकि पश्चिमी घाट भारत के सबसे महत्वपूर्ण जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से एक है, और यह क्षेत्र तेजी से विकास और मानव गतिविधियों के कारण पर्यावरणीय खतरों का सामना कर रहा था। गाडगिल समिति ने विभिन्न क्षेत्रों में विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण किए और अपनी रिपोर्ट में निम्नलिखित प्रमुख सिफारिशें की:

  1. संरक्षण क्षेत्रों का वर्गीकरण: समिति ने पश्चिमी घाट को तीन क्षेत्रों में विभाजित करने का प्रस्ताव दिया: अत्यधिक संवेदनशील (Ecologically Sensitive Zone – ESZ1), मध्यम संवेदनशील (ESZ2), और कम संवेदनशील (ESZ3)। इस वर्गीकरण के आधार पर विकास गतिविधियों को नियंत्रित करने का सुझाव दिया गया।
  2. विकास परियोजनाओं पर नियंत्रण: ESZ1 और ESZ2 में खनन, थर्मल पावर प्लांट, और बड़े हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स जैसी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की गई।
  3. स्थानीय समुदायों की भागीदारी: समिति ने सुझाव दिया कि संरक्षण प्रयासों में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए और उनकी आजीविका को ध्यान में रखते हुए योजनाएँ बनाई जानी चाहिए।
  4. वन और जल संसाधन संरक्षण: वन क्षेत्रों की कटाई पर सख्त नियंत्रण और जल संसाधनों के संरक्षण के लिए विशेष उपायों की सिफारिश की गई।
  5. जैव विविधता संरक्षण: जैव विविधता हॉटस्पॉट्स और वन्यजीव अभयारण्यों की रक्षा के लिए विशेष योजनाएँ बनाने की सिफारिश की गई।

गाडगिल समिति की रिपोर्ट को व्यापक सराहना मिली, लेकिन इस पर कुछ विवाद भी हुआ, खासकर उन लोगों द्वारा जो विकास परियोजनाओं और औद्योगिकीकरण के समर्थक थे। इसके बाद, भारत सरकार ने कस्तूरीरंगन समिति का गठन किया, जिसने गाडगिल समिति की सिफारिशों की समीक्षा की और कुछ संशोधित सिफारिशें प्रस्तुत कीं।

गाडगिल समिति की रिपोर्ट ने पर्यावरण संरक्षण के महत्व पर एक महत्वपूर्ण संवाद शुरू किया और विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता को उजागर किया।

1992 का 73वां संशोधन अधिनियम


1992 का 73वां संशोधन अधिनियम भारतीय संविधान में एक महत्वपूर्ण संशोधन है, जो पंचायत राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है। इस अधिनियम का उद्देश्य ग्रामीण स्थानीय स्वशासन को मजबूत करना और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देना था। यह अधिनियम 24 अप्रैल 1993 को लागू हुआ, और इसे “पंचायत राज अधिनियम” भी कहा जाता है। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:

  1. संवैधानिक दर्जा: 73वें संशोधन अधिनियम ने भारतीय संविधान में भाग IX को जोड़ा, जिसमें अनुच्छेद 243 से 243O शामिल हैं। इसके तहत पंचायतों को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ।
  2. तीन-स्तरीय संरचना: इस अधिनियम ने ग्रामीण क्षेत्रों में तीन-स्तरीय पंचायत प्रणाली की स्थापना की, जिसमें ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर), पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर), और जिला परिषद (जिला स्तर) शामिल हैं।
  3. नियमित चुनाव: पंचायतों के चुनाव हर पाँच साल में कराए जाने का प्रावधान है। यदि किसी कारणवश पंचायत को भंग किया जाता है, तो छह महीने के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है।
  4. आरक्षण: पंचायतों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। महिलाओं के लिए पंचायत पदों में एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं।
  5. राज्य वित्त आयोग: प्रत्येक राज्य में एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना का प्रावधान है, जो पंचायतों के लिए वित्तीय संसाधनों का वितरण सुनिश्चित करेगा।
  6. राज्य चुनाव आयोग: पंचायत चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से संचालित करने के लिए प्रत्येक राज्य में राज्य चुनाव आयोग की स्थापना का प्रावधान है।
  7. पंचायतों की शक्तियाँ और कार्य: पंचायतों को विभिन्न सामाजिक, आर्थिक विकास और योजना निर्माण से संबंधित 29 विषयों पर अधिकार दिए गए हैं। यह विषय संविधान की 11वीं अनुसूची में सूचीबद्ध हैं।

73वां संशोधन अधिनियम भारत में ग्रामीण लोकतंत्र और विकेंद्रीकृत शासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इसने पंचायतों को मजबूत और प्रभावी संस्थाएँ बनाने की नींव रखी, जिससे ग्रामीण विकास में स्थानीय समुदायों की भागीदारी बढ़ी।

अधिनियम का महत्व


1992 के 73वें संशोधन अधिनियम का महत्व कई दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है, क्योंकि इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत करने और ग्रामीण क्षेत्रों के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके कुछ मुख्य महत्व निम्नलिखित हैं:

  1. स्थानीय स्वशासन का सशक्तिकरण: यह अधिनियम पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देकर स्थानीय स्वशासन को सशक्त बनाता है, जिससे ग्रामीण समुदायों को अपने निर्णय स्वयं लेने की शक्ति मिलती है। इससे स्थानीय मुद्दों के समाधान में तेजी और प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित होता है।
  2. लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण: अधिनियम ने ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को बढ़ावा दिया है। पंचायतों के माध्यम से सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ, जिससे शासन की पारदर्शिता और उत्तरदायित्व में वृद्धि हुई।
  3. समावेशी विकास: पंचायतों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रावधान ने ग्रामीण समाज के हाशिए पर रहने वाले समूहों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया, जिससे सामाजिक न्याय और समावेशी विकास को प्रोत्साहन मिला।
  4. नियमित और स्वतंत्र चुनाव: राज्य चुनाव आयोग और नियमित चुनावों के प्रावधान ने पंचायत चुनावों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को सुनिश्चित किया, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती मिली।
  5. विकासात्मक योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन: पंचायतों को विभिन्न विकासात्मक योजनाओं और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी दी गई, जिससे योजनाओं की निगरानी और स्थानीय जरूरतों के अनुसार उनका समायोजन बेहतर तरीके से हो सका।
  6. वित्तीय सशक्तिकरण: राज्य वित्त आयोग के माध्यम से पंचायतों को वित्तीय संसाधनों का आवंटन सुनिश्चित किया गया, जिससे स्थानीय स्तर पर विकास कार्यों के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित हुई।
  7. स्थानीय समस्याओं का समाधान: पंचायतों को स्थानीय समस्याओं और आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील बनाने से समस्याओं के समाधान में तेजी आई। स्थानीय लोगों की भागीदारी से विकास कार्यों की गुणवत्ता और प्रासंगिकता में सुधार हुआ।
  8. सामाजिक जागरूकता और भागीदारी: इस अधिनियम ने ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक जागरूकता और सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया। ग्रामीण लोग अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक हुए और पंचायतों की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी दिखाने लगे।

73वें संशोधन अधिनियम ने भारतीय ग्रामीण समाज में एक नई उम्मीद और प्रगति का रास्ता खोला, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की गति तेज हुई और स्थानीय स्वशासन को एक नई दिशा मिली।

पंचायती राज के वितीय स्त्रोत

पंचायती राज संस्थाओं के वित्तीय स्रोतों का प्रबंधन और वृद्धि स्थानीय विकास की स्थिरता और प्रभावशीलता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। पंचायतों के पास विभिन्न वित्तीय स्रोत होते हैं, जो उन्हें विभिन्न विकासात्मक और प्रशासनिक कार्यों को पूरा करने में मदद करते हैं। ये वित्तीय स्रोत मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं:

  1. केंद्र और राज्य सरकारों से अनुदान:
    • केन्द्रीय वित्त आयोग अनुदान: पंचायती राज संस्थाओं को हर पाँच साल में गठित केंद्रीय वित्त आयोग द्वारा निर्धारित अनुदान प्राप्त होते हैं। यह अनुदान मुख्य रूप से पंचायतों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए होता है।
    • राज्य वित्त आयोग अनुदान: राज्य वित्त आयोग, जो प्रत्येक राज्य द्वारा गठित किया जाता है, पंचायतों को राज्य के वित्तीय संसाधनों में से हिस्सा देता है। यह अनुदान पंचायतों की स्थानीय आवश्यकताओं और योजनाओं के लिए होता है।
    • केंद्र और राज्य की योजनाओं से अनुदान: केंद्र और राज्य सरकारें विभिन्न विकासात्मक योजनाओं (जैसे कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत मिशन आदि) के माध्यम से भी पंचायतों को अनुदान देती हैं।
  2. स्थानीय कर और शुल्क:
    • संपत्ति कर: पंचायतें अपने अधिकार क्षेत्र में स्थित संपत्तियों पर कर लगा सकती हैं।
    • व्यवसाय कर: स्थानीय व्यवसायों और व्यावसायिक गतिविधियों पर कर लगाया जा सकता है।
    • जल कर और सफाई कर: जल आपूर्ति और सफाई सेवाओं के लिए शुल्क लिया जा सकता है।
    • बाजार शुल्क: स्थानीय बाजारों, मेलों, और हाटों से शुल्क वसूला जा सकता है।
  3. उपयोग शुल्क:
    • पंचायतें अपनी सेवाओं (जैसे जल आपूर्ति, स्ट्रीट लाइट, सामुदायिक हॉल आदि) के उपयोग के लिए शुल्क वसूल सकती हैं।
  4. ऋण और उधार:
    • पंचायतें विशेष परियोजनाओं या योजनाओं के लिए राज्य सरकार या वित्तीय संस्थानों से ऋण ले सकती हैं। हालांकि, इसके लिए राज्य सरकार की अनुमति आवश्यक होती है।
  5. स्वयं का राजस्व:
    • पंचायतें अपने स्तर पर विभिन्न संसाधनों (जैसे भूमि, तालाब, बाजार आदि) का प्रबंधन करके भी राजस्व कमा सकती हैं।
    • पंचायतें खुद के स्वामित्व वाली संपत्तियों (जैसे सामुदायिक भवन, जलाशय आदि) को किराए पर देकर या इनके उपयोग से भी राजस्व अर्जित कर सकती हैं।
  6. अन्य स्रोत:
    • दान और सहयोग: पंचायतें व्यक्तिगत, संस्थागत या अंतरराष्ट्रीय संगठनों से दान और सहयोग प्राप्त कर सकती हैं।
    • लाइसेंस और परमिट शुल्क: विभिन्न प्रकार के लाइसेंस और परमिट (जैसे निर्माण कार्य, पशुपालन, दुकान संचालन आदि) जारी करने के बदले शुल्क वसूला जा सकता है।

इन वित्तीय स्रोतों के माध्यम से पंचायतें स्थानीय स्तर पर विकासात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहन देती हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करती हैं। वित्तीय प्रबंधन में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व पंचायतों की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है, जिससे वे अपने विकास लक्ष्यों को प्रभावी ढंग से प्राप्त कर सकें।

अप्रभावी निष्पादन के कारण

पंचायती राज संस्थाओं का अप्रभावी निष्पादन विभिन्न कारणों से हो सकता है। ये कारण प्रशासनिक, वित्तीय, सामाजिक, और तकनीकी मुद्दों से संबंधित हो सकते हैं। यहाँ कुछ प्रमुख कारण दिए गए हैं जो पंचायतों के अप्रभावी निष्पादन में योगदान करते हैं:

  1. वित्तीय संसाधनों की कमी:
    • पंचायतों को अक्सर पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं मिलते हैं। केंद्रीय और राज्य सरकारों से मिलने वाले अनुदान समय पर नहीं मिलते या अपर्याप्त होते हैं।
    • पंचायतों के पास स्वयं के राजस्व जुटाने के पर्याप्त साधन नहीं होते हैं, जिससे वे अपने विकासात्मक कार्यों को पूरा करने में असमर्थ होते हैं।
  2. क्षमता और प्रशिक्षण की कमी:
    • पंचायत सदस्यों और कर्मचारियों में प्रशासनिक और प्रबंधन कौशल की कमी होती है। उन्हें आवश्यक प्रशिक्षण और संसाधन नहीं मिल पाते, जिससे वे प्रभावी रूप से काम नहीं कर पाते।
    • तकनीकी ज्ञान की कमी के कारण विकास योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन नहीं हो पाता।
  3. भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन:
    • भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के कारण वित्तीय संसाधनों का दुरुपयोग होता है। निधियों का सही उपयोग नहीं हो पाता, जिससे योजनाओं और परियोजनाओं का निष्पादन प्रभावित होता है।
    • पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी भी कुप्रबंधन को बढ़ावा देती है।
  4. राजनीतिक हस्तक्षेप:
    • पंचायतों में राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण विकासात्मक कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक दबाव के चलते योजनाओं का निष्पादन निष्पक्ष रूप से नहीं हो पाता।
    • पंचायत सदस्यों के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भी कार्यों को बाधित करती है।
  5. नियोजन और निगरानी की कमी:
    • पंचायतों में नियोजन और निगरानी की उचित व्यवस्था नहीं होती। दीर्घकालिक और प्रभावी योजनाओं का अभाव होता है।
    • योजनाओं की नियमित निगरानी और मूल्यांकन की कमी से भी कार्य की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है।
  6. कानूनी और प्रशासनिक बाधाएँ:
    • कई कानूनी और प्रशासनिक प्रावधान पंचायतों के कार्य में अड़चन पैदा करते हैं। ये प्रावधान जटिल और अनुपालन में कठिन होते हैं।
    • पंचायतों को राज्य सरकारों से पर्याप्त स्वायत्तता नहीं मिल पाती, जिससे उनका स्वतंत्रता से काम करना मुश्किल होता है।
  7. समुदाय की भागीदारी की कमी:
    • ग्रामीण समुदायों की योजनाओं में पर्याप्त भागीदारी नहीं होती। इससे योजनाएँ उनकी आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के अनुरूप नहीं बन पातीं।
    • समुदाय में जागरूकता और भागीदारी की कमी से पंचायतों के कार्यों में समर्थन नहीं मिल पाता।
  8. प्राकृतिक और भौगोलिक बाधाएँ:
    • कई पंचायतें दूरदराज और दुर्गम क्षेत्रों में स्थित होती हैं, जहां बुनियादी सुविधाओं की कमी होती है। इससे विकासात्मक कार्यों का निष्पादन प्रभावित होता है।

इन चुनौतियों के समाधान के लिए आवश्यक है कि पंचायतों को वित्तीय और प्रशासनिक रूप से सशक्त बनाया जाए, सदस्यों और कर्मचारियों के लिए नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था हो, और पारदर्शिता एवं जवाबदेही को सुनिश्चित किया जाए। इसके साथ ही, समुदाय की सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करना भी महत्वपूर्ण है।

पंचायतो से संबंधित अनुच्छेद: एक नजर में

भारतीय संविधान में पंचायती राज संस्थाओं से संबंधित अनुच्छेद भाग IX में शामिल हैं। ये अनुच्छेद पंचायतों की संरचना, शक्तियों, और कार्यों को स्पष्ट करते हैं। यहाँ पंचायती राज से संबंधित प्रमुख अनुच्छेदों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है:

  1. अनुच्छेद 243: परिभाषाएँ
    • इसमें पंचायत, ग्राम सभा, और अन्य संबंधित शब्दों की परिभाषाएँ दी गई हैं।
  2. अनुच्छेद 243A: ग्राम सभा
    • ग्राम सभा का गठन और इसके कार्यों का उल्लेख करता है, जिसमें ग्राम सभा को स्थानीय विकास कार्यों में भागीदारी का अधिकार दिया गया है।
  3. अनुच्छेद 243B: पंचायतों का गठन
    • प्रत्येक राज्य में पंचायतों की स्थापना का प्रावधान करता है, जिसमें त्रि-स्तरीय संरचना (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, और जिला परिषद) शामिल है।
  4. अनुच्छेद 243C: पंचायतों की संरचना
    • पंचायतों की संरचना, निर्वाचन क्षेत्र, और सदस्य संख्या का निर्धारण राज्य सरकार द्वारा किए जाने का प्रावधान करता है।
  5. अनुच्छेद 243D: पंचायतों में आरक्षण
    • अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, और महिलाओं के लिए पंचायतों में आरक्षण का प्रावधान करता है। महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित हैं।
  6. अनुच्छेद 243E: पंचायतों का कार्यकाल
    • पंचायतों का कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है। भंग होने की स्थिति में छह महीने के भीतर चुनाव कराए जाने का प्रावधान है।
  7. अनुच्छेद 243F: पंचायतों में सदस्यों के लिए अयोग्यता
    • पंचायत सदस्यों की अयोग्यता के बारे में प्रावधान करता है, जिसमें कानून द्वारा निर्धारित अयोग्यता के आधार शामिल हैं।
  8. अनुच्छेद 243G: पंचायतों की शक्तियाँ, प्राधिकार, और जिम्मेदारियाँ
    • पंचायतों को सामाजिक, आर्थिक विकास और योजना निर्माण से संबंधित कार्य करने के लिए अधिकार प्रदान करता है। 11वीं अनुसूची में सूचीबद्ध 29 विषयों पर पंचायतों को अधिकार दिए गए हैं।
  9. अनुच्छेद 243H: पंचायतों के वित्तीय अधिकार
    • पंचायतों को कर, शुल्क, और अन्य वित्तीय साधनों से राजस्व जुटाने का अधिकार देता है। राज्य विधानमंडल द्वारा वित्तीय प्रावधान किए जा सकते हैं।
  10. अनुच्छेद 243I: राज्य वित्त आयोग
    • प्रत्येक राज्य में राज्य वित्त आयोग की स्थापना का प्रावधान करता है, जो पंचायतों को वितीय संसाधनों का वितरण सुनिश्चित करेगा।
  11. अनुच्छेद 243J: पंचायतों के लिए लेखा और लेखापरीक्षा
    • पंचायतों के खातों का रखरखाव और लेखापरीक्षा के लिए प्रावधान करता है। राज्य विधानमंडल द्वारा आवश्यक व्यवस्था की जाती है।
  12. अनुच्छेद 243K: राज्य चुनाव आयोग
    • राज्य चुनाव आयोग की स्थापना का प्रावधान करता है, जो पंचायत चुनावों की देखरेख और संचालन करेगा।
  13. अनुच्छेद 243L: कुछ राज्यों में पंचायतों का अनुप्रयोग
    • कुछ विशेष राज्यों में पंचायतों के गठन और कार्यप्रणाली पर प्रावधान करता है, जो विशेष परिस्थितियों में लागू होते हैं।

11वीं अनुसूची:

  • यह अनुसूची पंचायतों के लिए 29 विषयों की सूची प्रदान करती है, जिन पर पंचायतें विकासात्मक कार्य कर सकती हैं। इसमें कृषि, भूमि सुधार, जल प्रबंधन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि शामिल हैं।

इन अनुच्छेदों का उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाना और स्थानीय स्वशासन को मजबूत करना है। यह व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को जमीनी स्तर पर लागू करने में सहायक है, जिससे समावेशी और संतुलित विकास सुनिश्चित होता है।

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